...क्या कहूँ और क्या न कहूँ, इसी सोच में हमेशा मन उलझता रहता है। कभी लगता है,,,,,शायद, बहुत कुछ सोच लिया, लेकिन कुछ न कहा, तो कभी लगता है, कुछ न सोचते हुए भी बहुत कुछ कह दिया।
मन की उलझनों का कोई अंत नहीं है, और वहीं दूसरी ओर इन उलझनों के जवाबों का भी कोई अंत नहीं है।
शायद ज़िंदगी, इसी का नाम है.......
मन की उलझनों का कोई अंत नहीं है, और वहीं दूसरी ओर इन उलझनों के जवाबों का भी कोई अंत नहीं है।
शायद ज़िंदगी, इसी का नाम है.......